सोमवार, 23 जनवरी 2023

सांसों की ख़ुश्बू - एक फ्रॉड

जहाँ तक मुझे मालूम है हम सांस लेते हैं तो ऑक्सीजन लेते हैं, और छोड़ते हैं तो कार्बन डाइऑक्साइड। फिर यह 'साँसों की ख़ुश्बू' भला क्या बला है? मुझे लगता है यह कोई फ्रॉड है जो हमारे गीतकारों, रोमांटिक कवियों और गायकों ने हमारे साथ किया है। 

क्या आपकी कार्बन डाइऑक्साइड में ख़ुश्बू है? 

शुक्रवार, 8 जुलाई 2022

My reaction to Shri Parvez Akhtar's Facebook post

 https://m.facebook.com/story.php?story_fbid=pfbid0387Ez2cjw1DkVx6JspEYpkwpzTSXQpgirijWbusZ6pHYBXDmZEiKTK66ggLw7AxSil&id=100001370063747

Parvez Akhtar's post - 

The relationship between actor and character is dialectical. It may sound tempting to say that the unity or integration of the actor and the character is the criterion of the best acting. But on a practical level this is not possible. Dilip Kumar, Balraj Sahni or Naseeruddin Shah are the best actors because they are more critical of the character than others. They are able to translate the finer physical and spiritual characteristics of a particular character into their own experience with conscious effort and reasoning. They never introduce a character exactly (or actually they can't); rather they present a stylized version of that particular character. It is because of his deep belief in this stylization of his character that the audience also accepts the character played by that actor as he is. Ben Kingsley is a fine actor, but in the film 'Gandhi' he creates a distinctive stylized version of Gandhi, which is not the real Mahatma Gandhi, but rather an act of Gandhi performed by Kingsley. Another example can be given from stage performance of 'Bapu' from Natmandap (Patna), in which veteran Bihar actor Javed Akhtar Khan invents such a stylization of Mahatma Gandhi; which, passing through the experience of the viewer, creates reality for them. 

Similarly Naseeruddin Shah, Annu Kapoor or Dilip Prabhavalkar present a different version of Gandhi's style. According to B. V. Karanth "stylization, at its climax transforms into realistic effect." The stylized-acting of Savitri Devi (Manipur) is also a strong example of this.


Vijay Singh's reply - 

Some impressions after reading your post:

*Stylized performance is not the exactness. True. It means the character is a separate entity and the actor is always striving to ‘become’ that entity which is actually separate from her/him. A performance is only a meeting point of the actor and the character.*

1.   Your piece implies that the actor and character are both in conversation with each other which you have termed here as ‘dialectical’. Dialectical needs to have two sides – the actor and the character, in a reasoned argument with each other.

2.     During this argument, at some point, both of them ‘meet’. This meeting can be either an agreement or a friction between the two. This meeting point or the ‘point of interference’ is played out in the performance, which means, the actor and the character are still separate entities, only it is the performance that brings them both together, not completely but to some extent. That is why no exactness can be achieved in portraying a character.

3.     But this separate entity of character, independent of the actor is always there. An actor always tries to approach a character based on some analysis of the conditions and given circumstances, but could only manage to reach a point of interference. So there is a ‘self’ of the character and there is a ‘self’ of the actor. The actor is reaching out to the character with her or his efforts.

4.   I believe that the character would also be trying to reach out to the actor and find a voice find an expression through her/him. The success is limited. This limit brings different shades of a character in each performance. So on stage, the ‘self’ of an actor is a ‘stylized version of a character’. To explain this you have given example of a historic character whose life has been much documented. I think I will have to watch the movie ‘Sanju’ where the actor is playing another actor who is very much around (and might even have come to witness the shooting or process of the making of the character).

5.      However, when a character is purely imaginative, it has a different yardstick. To my belief a character would always be somewhere in this universe in her/his physical, mental and psychological exactness. An actor would always strive to reach out up there.  Even this character (Gandhi) may also be played as an imaginative one. May be the character Sanju would have been played as an imaginative character.

6.      So what does the actor do? He first creates a replica of the character which he is given to portray according to the conditions and given circumstances, and then s/he would create a path to reach out to that character and sort of merge into that.


शुक्रवार, 4 मार्च 2022

शुक्रवार, 24 दिसंबर 2021

अब हुआ क्या कि मेरे मन में बात आई कि एक जींस की पैंट और दो जोड़ी राष्ट्रीय पोशाकें ख़रीद ली जाएँ। एक्चुअली दिल्ली में रहते हुए समय तो मिलता नहीं। प्रोमिला भी वर्किंग वुमन होने के नाते ज़्यादा कुछ कर नहीं पाती। और मेरी बनियान वग़ैरह अभी भी मेरी मम्मी ख़रीद के लाती हैं।


आजकल टूअर पर इतना रहना पड़ रहा है कि शिमला से आके जब मैं एक-दो दिनों में ही सिल्चर और वहाँ से गुवाहाटी गया तो रवि तनेजा वीर जी ने मुझसे पूछ ही लिया, 'यार इतने कपड़े थे भी तेरे पास (कि तू एक शहर से दूसरे में बिना रुके छलांगे मारता फिरे)!!!??'


टूअर पर रहते हुए अपने कपड़े ख़ुद धो लेने की आदत अब मेरे घर में रहते हुए भी कुछ-कुछ काम में आने लगी है। 


लेकिन कपड़ा प्रेस करना मेरे लिए जी का जंजाल है। यहाँ की सिलवट समेटता हूँ तो वहाँ की मुँह चिढ़ाने लगती है, सो भी ख़ास तौर पर तब जब मैं प्रेस करके शर्ट पहन चुका होता हूँ। पैंट प्रेस करना ज़्यादा आसान है। कई बार होटलों में प्रेस करवानी पड़ती है या लोकल बंदा ढूँढना पड़ता है। लोकल तो मिलता नहीं और समय भी नहीं होता। मजबूरन होटल में प्रेस करवाने पर एक कपड़े के पच्चीस रुपए तक देने पड़ जाते हैं। सोचिए, मुझ जैसा आदमी जो बस का किराया बचाने के लिए दो स्टॉप पैदल चल लेता है, कपड़े प्रेस करवाने के पच्चीस रुपए देते हुए कैसा महसूस करता होगा। 


तो सिर्फ इश्क़ ही ऐसी चीज़ नहीं जिसके बारे में कहा जाए कि नहीं आसां 

कपड़े आयरन करना भी नाको तले लोहे के चने चबाना है 

बस इतना समझ लीजे कि कपड़े को आग के दरिया में डूब के जाना है और ख़ुद को जलने से बचाना है। ख़ैर....


बहुत वर्षों तक कमीज़ें घर पर सिली पहनता रहा और अब मम्मी-डैडी की सेहत ठीक नहीं रहती तो उन्हें मजबूरन मुझे इजाज़त देनी पड़ी कि मैं रेडीमेड कपड़े ख़रीद लिया करूँ। पर ऐसा कुछ भी ख़रीदता हूँ, तो उन्हें दिखाए बिना अपने कमरे में ले जाता हूँ, क्योंकि वो कीमत पूछेंगे और यही कहेंगे कि मैं महंगा ले आया। बाप की आँखों का सामना करने की हिम्मत मेरी तो पड़ती नहीं सो मैं आएं-बाएं करके टाल देता हूँ जब सवाल रेट का उठता है तो। 


शर्ट पैंट इत्यादि ख़रीदने का अपन को यही तरीका सूझा है कि जब टूअर पर हो तो उसी शहर या कस्बे में एक कमीज़ इत्यादि ख़रीद लो। 


यह पोस्ट लिखते समय जो शर्ट मैंने पहन रखी है वो त्रिशूर में ख़रीदी थी और जो जींस की पैंट मैं धोकर डाल आया हूँ वह मैंने शिमला में खरीदी थी। इस पोस्ट को लिखते समय पहनी हुई जींस की पैंट शायद मैंने कनाट प्लेस से खरीदी थी। 


तो यहाँ गुब्बी में सोचा एक जींस की पैंट ख़रीद ली जाए। जींस की पैंट कई दिन चलती है और लोग उसे फैशन या आधुनिकता मानकर आपको अपने पास बैठने देते हैं। आप भी कोन्फिडेंट बने रहते हैं। 


कृपया कोन्फिडेंट की इस्पेलिंग को नज़रअंदाज़ करें। पर नज़रअंदाज़ की स्पेलिंग ठीक है।


तो मैं कपड़े की एक बड़ी सी कस्बाई-एथोस से ओत-प्रोत दुकान में अपने एक स्थानीय साथी के साथ गया। दुकान में सेल्समैन ने कह दिया देखते ही कि मुझे 36 की कमर चलेगी। वैसे मेरा पेट न जाने किस बात की गवाही देने को बाहर को निकला हुआ है जिससे मुझे लगता है कि इस कमबख़्त को तो चालीस की भी न बांध पाए। 


मुझे पैंटें दिखाई गईं सभी तंग मोरी की थीं, और एक जो मेरे टेम्परामेंट के सबसे नजदीक जान पड़ती थी, मैंने चुनकर ट्रायल रूम की ओर रुख किया। एक छोटे-से कैबिन में घुसने के लिए दरवाज़ा खोलते ही मैं हैरान हो गया। दरवाजे के उस पार भी मैं ही खड़ा मिला मुझे। मैं डूइंग माय ओन स्वागत!!! तो गोया इत्ती सी जगह थी कि खड़ा हुआ जा सके। मैंने आदमक़द आईने में ख़ुद से कहा, 'अबे फैब इंडिया में आया ऐ क्या तू जो नखरे दिखा रहा है।' 


आत्मसम्मान की वजह से नहीं बल्कि मेरी अकर्मण्यता के गवाह पेट के निकले होने की वजह से झुकना बड़ा मुश्किल हो चला है मेरे लिए आजकल। और नई पतलून को पहनकर देखने के लिए पुरानी पतलून उतारनी ज़रूरी थी। पतलून उतारने के लिए जूते के तस्में खोलना ज़रूरी था और जूते के फीते खोलने के लिए बैठना या झुकना ज़रूरी था। झुकना हो न पाना था तो मैंने पैर से रिक्वेस्ट की कि खुद ही उठकर पेट की ऊँचाई तक चला आए। यानी मुझे एक पैर पर खड़ा होना था। ज़ाहिर था मैं लड़खड़ाने लगा। सहारा लेने के लिए आदमक़द आईने पर हाथ रखा तो आईना टूटते-टूटते बचा। दरअसल आईना दीवार में चस्पा नहीं किया गया था केवल सहारा लेकर खड़ा कर दिया गया था। आईना टूट जाता तो मेरा भी टूटना तय था। एक जूता उतारा फिर दूसरा। और पैंट उतारकर पहले तो जी भरकर गहरी साँसे लीं और फिर खुद को योकोजुमा पहलवान स्टाइल में आईने की तरफ देखा। 


अब हमने तंग मोरी पैंट में अपनी टांग घुसाने की शुरुआत की। एक जब ठीक-ठाक घुस गई तो दूजी घुसाई और इस सफलता पर गर्व करते हुए एकम-एक बटन लगाने की कोशिश की। काज बहुत संकरा था और बटन को घुसाने में हमारे अंगूठे को नानी याद आ गई। उसके बाद हमने ज़िप ऊपर को खींचने की कोशिश की लेकिन ज़िप सातवें वेतन आयोग की सिफ़ारिशें लागू होने की मांग पर अड़ गई हो जैसे। 


हमने तौबा की और जींस की पैंट की ज़िप वापिस नीचे करने में काफी मशक्कत के बाद सफलता पा ली। बटन खोलने में तो मुझसे पसीना आ गया। आखिर मैंने सेल्समैन को बुलवाकर उससे बटन खुलवाया। 

24 Dec 2017


जींस की पैंट को वापिस सलीके से उतारना हमारे बस का न था सो ज़ोर लगाके हईसा किया और छिलके या केंचुली की तरह, या फिर स्कूल से लौटे बेचैन बच्चे की तरह हमने उस पैंट को उतार फेंका और वापिस पुरानी जींस में आ गए। इस बार जूते पहनने के लिए झुकने में कुछ कम कष्ट हुआ। इस सब एक्सरसाइज़ में ऐसा लगा गोया ट्रायल रूम से नहीं बल्कि जिम से बाहर निकल रहे हों।


जींस खरीदने गए थे, कच्छा ख़रीद के लौटे।